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पुरुष परीक्षा (PURUSH PARIKSHA)

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             …… आईए ! .... इस अंक में हम मिथिला की साहित्यिक धरोहर ..... कवि कोकिल विद्यापति रचित प्रसिद्ध संस्कृत ग्रंथ 'पुरुष परीक्षा' का परिचय प्राप्त करते हैं ......।    'पुरुष परीक्षा' जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, इसमें पुरुष के पौरुष को विभिन्न कसौटियों के माध्यम से परखा गया  है ...।  संसार में कितने प्रकार के पुरुष होते हैं और उनके क्या-क्या लक्षण होते हैं, ये उदाहरण कथा के माध्यम से बताने का प्रयास किया गया है, जो काफी रोचक है ...।      'पुरुष परीक्षा' में वर्णित कथाओं का  ऐतिहासिक महत्व भी है। इसमें महमूद गजनवी से लेकर इस ग्रंथ के रचनाकाल (15 वीं शताब्दी) तक के कई महत्वपूर्ण ऐतिहासिक प्रसंग का वर्णन है ।        संस्कृत में रचित उपदेशात्मक कथा-साहित्य में सर्वप्रथम आचार्य विष्णु शर्मा रचित 'पंचतंत्र' का नाम आता है, जो काफी लोकप्रिय रहा है। पशु-पक्षी के माध्यम से मानव - जीवन का सर्वांगीण विश्लेषण इसमें बड़े ही रोचक ढंग से किया गया है। अमेरिका के एक प्रसिद्ध विश्वविद्यालय में 'पंचतंत्र चेयर' भी बना हुआ है।     संस्कृत कथा-साहित्य की  द

जब जयचंद ने लोहा माना मिथिला के छोरे का (WHEN JAYCHAND ACCEPTED THE VALOUR OF THE SON OF MITHILA )

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 .....बात उन दिनों की है जब मिथिला में कर्णाट वंश का शासन था और राजा थे नान्यदेव । नान्यदेव के दो पुत्र थे ---- गंगदेव  और   मल्लदेव ।     मल्लदेव अपने नाम के  अनुरूप हीं  वीर  एवं पराक्रमी थे ।         15वीं शताब्दी में महाकवि विद्यापति रचित संस्कृत ग्रंथ 'पुरुष परीक्षा' में युद्धवीर-कथा प्रसंग में मल्लदेव की वीरता का वर्णन है । बताते चलें कि 'पुरुष परीक्षा' में विद्यापति द्वारा 'पुरुष' के प्रकार को बताने के लिए उदाहरण स्वरूप कई इतिहास प्रसिद्ध व्यक्तियों का वर्णन किया गया है, जो भारत के विभिन्न भागों के रहे हैं । इस ग्रंथ का उपयोग इतिहास के स्रोत-ग्रंथ के रूप में किया जाता है ।        'पुरुष परीक्षा' में युद्धवीर के रूप में वर्णित मल्लदेव की कथा अत्यंत ही रोचक है, जो लघुकथा रूप में इस प्रकार है ------     मिथिला में नान्यदेव नामक राजा के पुत्र मल्लदेव थे जो स्वभाव से हीं वीर एवं पराक्रमी थे ।       ....….एक दिन मल्लदेव को विचार आया कि वे पिता द्वारा उपार्जित राज्य में सुख -भोग कर रहे हैं , ये उनका पौरुष नहीं है । इसलिए अन्यत्र कहीं जाकर अपने बाहुबल

जानें मिथिला के मैदानी क्षेत्र की प्रकृति को (LET'S KNOW ABOUT THE NATURE OF PLAIN AREA OF MITHILA)

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        .........आइए , इस अंक में हम जानने का प्रयास करते हैं मिथिलांचल के मैदानों की भौगोलिक विशेषताओं को....       हम जानते हैं कि मिथिला का क्षेत्र कम ढाल वाला मैदानी भू-भाग है ।       भूवेत्ताओं ने अध्ययन सुविधा के लिए वर्त्तमान मिथिला के उत्तरी सीमा से गंगानदी तक और कोशी से पश्चिमी सीमा तक के प्रक्षेत्र को 'मिथिला के मैदान' अन्तर्गत रखा है ।    पूरब में कोशी के पार के मिथिला क्षेत्र को 'कोशी के मैदान' क्षेत्र में तथा दक्षिण में गंगा पार के क्षेत्र को 'अंग के मैदान'  के  अंतर्गत स्थिर किया है ।    उपर्युक्त भौगोलिक विभाजन के आधार पर मिथिलांचल अंतर्गत तीन प्रकार के भौगोलिक क्षेत्र अंतर्भुक्त हैं ----     1. मिथिला का मैदान     2. कोशी का मैदान     3. अंग का मैदान ........आइए, प्रथमतः मिथिला के मैदान की भौगोलिक विशेषता को देखते हैं......     1. मिथिला का मैदान  :         मिथिला का मैदान मंद ढाल वाला है । इसकी औसत ढलान 8 से. मी. प्रति किलोमीटर है । इसलिए यहाँ खड़ी चढ़ाई का  क्षेत्र   नहीं  मिलता ।         यहाँ की नदियाँ अवसाद का निक्षेप अधिक गहराई तक की है जिसस

कथा पुरुषार्थी महाराज गंगदेव की (STORY OF COURAGEOUS MAHARAJA GANGDEV)

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     ... ...........' अंचल मिथिला' सीरीज....  के 'कहानी मिथिला में राजसत्ता की' .....  शीर्षक अंतर्गत हमने देखा कि कर्णाट राजा नान्यदेव ने 1097 ई. में मिथिला में अपनी राजसत्ता कायम की । किन्तु, कुछ अवधि के उपरांत बंगाल के बल्लाल सेन ने आक्रमण कर उन्हें पराजित कर बंदी बना लिया.......         .......... राजा नान्यदेव जब बल्लाल सेन के बंदी थे तो उनके पुत्र गंगदेव ने परम पुरुषार्थ का परिचय देते हुए बल्लाल सेन के बंदीशाला पर आक्रमण कर नान्यदेव को मुक्त करा लिया और उन्हें पुनः मिथिला के राज सिंहासन पर बिठाया ।  इस प्रकार मिथिला में फिर से कर्णाट वंश की सत्ता कायम हो गयी ....।         नान्यदेव के स्वर्गारोहण के बाद  गंगदेव ने मिथिला की सत्ता सँभाली । इनका शासन काल शाके 1046 , सन 1124 ई.  से आरंभ होकर 1138 ई. तक 14 वर्षों का रहा ।         गंगदेव के शासनकाल में नेपाल के राजा और गौड़देश (मालदह) के राजा द्वारा कई आक्रमण कर मिथिला राज्य  को अस्थिर करने का प्रयास किया गया ।  किन्तु, गंगदेव ने अपनी वीरता से उन्हें सफल नहीं होने दिया और अपने चतुर महामंत्री श्रीधर दास की सहायता से मिथिल

कहानी मिथिला में राजसत्ता की ( STORY OF SEIGNIORY IN MITHILA)

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   ...........आइये जानने का प्रयास करें .......मिथिला में किसकी रही है राजसत्ता.......     .........प्रस्तुत 'अंचल मिथिला' सीरीज के 'मिथिला तेरे कितने नाम' शीर्षक आलेख में हमने जाना कि अति प्राचीन काल में मिथिला प्रक्षेत्र एक आरण्यक एवं दलदली भू-भाग था, जिसका विदेध माथव नामक आर्य ने अग्नि से संस्कार कर इसे आर्यों के बसने योग्य बनाया ।       इसी विदेध (विदेह) माथव के नाम पर मिथिला में प्रथम सत्ता के रूप में विदेहवंश की राजसत्ता कायम हुई । ये राजसत्ता लगभग 3000 ई.पू. से 600 ई.पू. तक चली । इस वंश के निमि, मिथि व सीरध्वज जनक (सीता के पिता) आदि अति प्रतापी राजा हुए ।     सीरध्वज जनक को 'भोग में योग' के प्रणेता के रूप में जाना जाता है । सम्पूर्ण भोग-विलास, ऐश्वर्य की उपस्थिति के बावजूद वे एक योगी की भाँति रहते थे । धन-वैभव व साम्राज्य के प्रति उनकी कोई विशेष आसक्ति नहीं थी । सीरध्वज जनक के बाद के उत्तराधिकारियों पर भी इस आध्यात्मिक चिंतन का व्यापक प्रभाव पड़ा । जिस कारण सामरिक दृष्टिकोण से सेना के संगठन पर विदेह राजाओं द्वारा अधिक ध्यान नहीं दिया गया । फलतः शनैः-शनैः व

मिथिला की भौगोलिक अवस्थिति (Geographical location of Mithila)

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     ............इस अंक में हम जानने का प्रयास करते हैं कि मिथिला विश्व मानचित्र में कहाँ अवस्थित है, तथा इसकी धरती का निर्माण भौगोलिक रूप से किस तरह हुआ...............     विश्व मानचित्र में वर्तमान मिथिला करीब-करीब 25डिग्री से 27डिग्री उत्तर अक्षांश तथा 84डिग्री से 87डिग्री पूर्व देशांतर मध्य अवस्थित है । पराम्परागत रूप से इसके उत्तर में हिमालय, दक्षिण में गंगा, पूरब में कोशी एवं पश्चिम में गण्डक मानी जाती रही है  ।      मिथिलांचल की धरती के निर्माण के संबंध में भूवेत्ताओं ने जो मत व्यक्त किया है वह इस प्रकार है -----    मिथिलांचल भारतीय प्रायद्वीप का उत्तर-पूर्वी  हिस्सा है, जो 'कैंब्रियन कल्प' से ही सागर तल से ऊँचा रहा है । यह एक असंबलन खंड है,  जहाँ 'तृतीय महाकल्प' के उपरांत जलोढ़ निक्षेप से मैदान क़ा निर्माण हुआ है ।      कैम्ब्रियन कल्प   :    60 करोड़ वर्ष पूर्व  (गोंडवाना काल    :    22 - 60 करोड़ वर्ष पूर्व)    तृतीय महाकल्प  :   4 करोड़ से 7 करोड़ वर्ष पूर्व           मिथिलांचल की धरती काफी नई है । भू-वैज्ञानिकों केे अनुसार, सम्पूर्ण भारत में इस भू-भाग का निर्माण स

आर्यावर्त्त में मिथिला की अवस्थिति (Location of MITHILA in ARYAVARTA)

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          .......... आज इस अंक में हम जानने का प्रयास करते हैं कि आर्यावर्त में प्राचीन मिथिला की अवस्थिति कहाँ रही है ........       महान आर्यावर्त्त में पवित्र मिथिला की अवस्थिति पारंपरिक रूप से इस प्रकार मानी जाती रही है ----          उत्तर में हिमालय          दक्षिण में गंगा          पूरब में कौशिकी          पश्चिम में गण्डकी    'वृहदविष्णुपुराण' (5वीं शताब्दी) के मिथिला माहात्म्य-खंड में इसकी परंपरागत सीमा विवरण है, जो उपर्युक्त तथ्य को पुष्ट करता है। इसमें अंकित संस्कृत पद का मैथिली अनुवाद कवीश्वर चन्दा झा ने इस प्रकार किया है -------   गंगा बहथि जनिक दक्षिण,  पूर्व कौशिकी धारा   पश्चिम बहथि गण्डकी, उत्तर हिमवत बल-विस्तारा ।  कमला त्रियुगा कृतिका धेमुड़ा वागमती कृतसारा  मध्य बहथि लक्ष्मणा प्रभृति से मिथिला विद्यागारा ।।              मिथिला की उपर्युक्त सीमा में समय-समय पर परिवर्तन से इन्कार नहीं किया जा सकता है। प्राचीन विदेह वंश जब तक प्रबल रहा,  उपर्युक्त सीमा लगभग-लगभग स्थिर रही। किंतु, इस वंश की शक्ति क्रमिक रूप से क्षीण होने के साथ ही इसकी सीमा में अंतर आता चला गया