जब जयचंद ने लोहा माना मिथिला के छोरे का (WHEN JAYCHAND ACCEPTED THE VALOUR OF THE SON OF MITHILA )




 .....बात उन दिनों की है जब मिथिला में कर्णाट वंश का शासन था और राजा थे नान्यदेव । नान्यदेव के दो पुत्र थे ---- गंगदेव  और   मल्लदेव ।


   मल्लदेव अपने नाम के  अनुरूप हीं  वीर  एवं पराक्रमी थे । 


       15वीं शताब्दी में महाकवि विद्यापति रचित संस्कृत ग्रंथ 'पुरुष परीक्षा' में युद्धवीर-कथा प्रसंग में मल्लदेव की वीरता का वर्णन है । बताते चलें कि 'पुरुष परीक्षा' में विद्यापति द्वारा 'पुरुष' के प्रकार को बताने के लिए उदाहरण स्वरूप कई इतिहास प्रसिद्ध व्यक्तियों का वर्णन किया गया है, जो भारत के विभिन्न भागों के रहे हैं । इस ग्रंथ का उपयोग इतिहास के स्रोत-ग्रंथ के रूप में किया जाता है ।


       'पुरुष परीक्षा' में युद्धवीर के रूप में वर्णित मल्लदेव की कथा अत्यंत ही रोचक है, जो लघुकथा रूप में इस प्रकार है ------


    मिथिला में नान्यदेव नामक राजा के पुत्र मल्लदेव थे जो स्वभाव से हीं वीर एवं पराक्रमी थे । 

     ....….एक दिन मल्लदेव को विचार आया कि वे पिता द्वारा उपार्जित राज्य में सुख -भोग कर रहे हैं , ये उनका पौरुष नहीं है । इसलिए अन्यत्र कहीं जाकर अपने बाहुबल से पुरुषार्थ करना चाहिए ।


           इस विचार की प्रबलता में मल्लदेव कन्नौज चले गए और  इतिहास प्रसिद्ध राजा जयचंद जिसका राज्य काशी तक था, से सैन्य -पद्धति से मिले । जयचंद उनका सत्कार कर अपना प्रिय सहचर बना लिया । 


  .......समय बीतता गया....। अधिक समय तक जयचंद के यहाँ रहने के कारण धीरे-धीरे मल्लदेव को राजा की ओर से अपने सम्मान में कमी का अनुभव होने लगा । 


        एक दिन उकता कर मल्लदेव ने राजा जयचंद से जाने की अनुमति मांगी । जयचंद ने जाने का कारण जानना चाहा तो मल्लदेव बोले - " मैं मिथिला से कन्नौज आपके यहाँ आपके पराक्रम को सुनकर आया था । किंतु, आपके द्वारा तो कोई युद्ध हीं नहीं किया जा रहा है जिससे मुझे अपनी वीरता दिखाने का कोई अवसर हीं नहीं मिल रहा । "


     जयचंद बोला - " मैं समुद्र तट तक राजस्व ग्रहण करता हूँ । मुझसे कोई मुकाबला करने वाला हीं  नहीं है तो फिर युद्ध किससे करूँ ?" 


    जयचंद का बड़बोलेपन सुन मल्लदेव उत्तेजित हो गए , बोले - "तो ठीक है । मैं आपके पास से जाता हूँ और जिस सेना में सम्मिलित हो जाऊँगा वह आपसे युद्ध करने की क्षमता प्राप्त कर लेगा । "

  

   मल्लदेव के इस वचन से जयचंद कुपित हो गया और उसने कहा - " अच्छा ....। तो तुम्हें अपने पराक्रम पर इतना हीं घमंड है तो तुम चलो, मैं तुम्हारे पीछे हीं युद्ध को आता हूँ ।" 


   मल्लदेव जयचंद के यहाँ से चलकर राजा चिकोर के यहाँ पहुंचे । इधर, जयचंद भी इनके पीछे ही एक बड़ी सेना लेकर चिकोर  पर आक्रमण हेतु आ धमका । 


     राजा चिकोर को जब ज्ञात हुआ कि उन पर चढ़ाई के लिए जयचंद की सेना सीमा पर है तो वह अपनी जान की सुरक्षा के लिए वहाँ से भाग निकला । 


  चिकोर के भाग जाने के बाद मल्लदेव ने जयचंद की सेना का अकेले ही मुकाबला करने का निश्चय किया । 


   मल्लदेव अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित होकर हाथी पर सवार हुए और अकेले ही रणक्षेत्र में जयचंद के सामने जाकर खड़े हो गए । 


   जयचंद ने उन्हें आत्म-समर्पण करने को कहा किन्तु मल्लदेव ने प्रत्युत्तर में युद्ध करने की चुनौती दी ।


  जयचंद  अपने सेनानायकों को मल्लदेव को बंदी बना लेने का आदेश दिया । मल्लदेव ने बड़ी हीं वीरता से उन सेनानायकों का सामना किया । अनेक सैनिकों को मौत के घाट उतारने के बाद वाण से विद्ध होकर हाथी से गिर पड़े । 


   जयचंद घायल मल्लदेव के निकट आया और उनकी वीरता और साहस पर मुग्ध हो बोला - "हे कर्णाट कुल गौरव क्या आप जीवित रहना चाहते हैं ?"


  मल्लदेव टूटती आवाज में बोले - "पहले ये बताइए कि इस युद्ध में कौन जीता , मैं या आप ?" 


जयचंद बोला - "बुरी तरह आहत होने के बाद भी जो अपने प्राणों से अधिक जीत की ही आशा रखता हो तो भला उसे कौन हरा सकता है । निःसंदेह इस युद्ध में आप हीं जीते हैं ।"


ये सुन मल्लदेव रोमांचित हो गए औऱ बोले - "तो मुझे जीवन स्वीकार है ।"


जयचंद  मल्लदेव के शरीर से वाण निकलवाकर उन्हें अपने साथ कन्नौज ले गया । और राजमहल में रख उनकी देखभाल एक पिता के समान की ।


  जब मल्लदेव के घाव पूरी तरह भर गए और पूर्ण रूप से स्वस्थ हो गए तो जयचंद ने एक राजकीय समारोह का आयोजन कर उनका भावपूर्ण सत्कार किया और मिथिला के इस युद्धवीर की भूरि-भूरि प्रशंसा की ........।


                                 ✍️-----डॉ. लक्ष्मी कुमार कर्ण









   


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