जानें मिथिला के मैदानी क्षेत्र की प्रकृति को (LET'S KNOW ABOUT THE NATURE OF PLAIN AREA OF MITHILA)

 



      .........आइए , इस अंक में हम जानने का प्रयास करते हैं मिथिलांचल के मैदानों की भौगोलिक विशेषताओं को....


      हम जानते हैं कि मिथिला का क्षेत्र कम ढाल वाला मैदानी भू-भाग है । 

     भूवेत्ताओं ने अध्ययन सुविधा के लिए वर्त्तमान मिथिला के उत्तरी सीमा से गंगानदी तक और कोशी से पश्चिमी सीमा तक के प्रक्षेत्र को 'मिथिला के मैदान' अन्तर्गत रखा है ।

   पूरब में कोशी के पार के मिथिला क्षेत्र को 'कोशी के मैदान' क्षेत्र में तथा दक्षिण में गंगा पार के क्षेत्र को 'अंग के मैदान'  के  अंतर्गत स्थिर किया है ।


   उपर्युक्त भौगोलिक विभाजन के आधार पर मिथिलांचल अंतर्गत तीन प्रकार के भौगोलिक क्षेत्र अंतर्भुक्त हैं ----


    1. मिथिला का मैदान

    2. कोशी का मैदान

    3. अंग का मैदान


........आइए, प्रथमतः मिथिला के मैदान की भौगोलिक विशेषता को देखते हैं......


   1. मिथिला का मैदान  :


        मिथिला का मैदान मंद ढाल वाला है । इसकी औसत ढलान 8 से. मी. प्रति किलोमीटर है । इसलिए यहाँ खड़ी चढ़ाई का  क्षेत्र   नहीं  मिलता ।  

      यहाँ की नदियाँ अवसाद का निक्षेप अधिक गहराई तक की है जिससे कॉप मिट्टी का जमाव बहुत गहराई तक है ।

      सभी स्थानों पर निक्षेप (नदियों द्वारा बहाकर लाई गई  मिट्टी का बिछना) की गहराई समान नहीं है । इसकी गहराई 6 हजार  से 8 हजार  मीटर तक पायी जाती है ।


      भौगोलिक विभाजन में मिथिला का मैदान गंगा के उत्तरी मैदानी प्रदेश के अंतर्गत आता है । ये मैदान समतल, उर्वरा एवं विस्तृत है । जिसका निर्माण हिमालय से निकलनेवाली नदियों के निक्षेप से   हुआ   है । 


     गंगा, कोशी, गण्डक नदी के मध्य विस्तृत इस भू-भाग में गण्डक, बूढ़ी गण्डक, कमला, कोशी, बागमती, कमला बलान, जीबछ, अधवारा समूह की नदियाँ प्रमुखता से प्रवाहित होती है । अन्य सहायक नदियों की यहाँ भरमार है । लगता है सम्पूर्ण क्षेत्र में जैसे नदियों का जाल बिछा है ।


 मिथिला के मैदान की प्रमुख स्थलाकृतियां  :

    

      मिथिला के मैदान में अनेक ऐसी स्थलाकृतियां मौजूद है जो इस भू-भाग को विशेष बनाता है ------

    ताल (टाल) , झील, दलदल, प्राकृतिक तटबंध, नदी-विशर्प, बालूका स्तूप, चौर आदि प्रमुख स्थलाकृतियां हैं ।

   

  स्थलाकृतियों में 'ताल'(टाल) और 'चौर' यहाँ विशेष रूप से उल्लेखनीय है । 

  वर्षा के जल से भरे क्षेत्र को 'ताल' अथवा 'टाल' कहा जाता है । स्थानीय स्तर पर यह 'टाल क्षेत्र' के नाम से ही पुकारा जाता है । गंगा के कछेर का दियारा और टाल मिथिलेतर लोगों के लिए विशेष जिज्ञासा की चीज रही है । 

   मिथिला में 'चौर' की भरमार है । नदी के मृत प्रवाह-पथ अथवा 'छारण' में जहाँ-जहाँ स्थल पर जलाशय बन जाता है, 'चौर' कहलाता है । मिथिला के मैदान में चौरों की भरमार है । ये खाली विस्तृत भू-भाग काफी निचली भूमि होती है जो मीलों लंबी -चौड़ी होती है । यह जल-जमाव का क्षेत्र  है । बरसात के दिनों में यहाँ विस्तृत समुद्र का नजारा होता है । दूर-दूर तक केवल जल ही जल दिखता है । साल के छः महीने ही यहां खेती संभव हो पाती है ।


   मिथिला के मैदान का झील भी अपनी विशेष खाशियत रखता है ।  सालो भर जल जमाव के कारण इसमें स्थानीय विशेषता के अनुरूप अनेक विशेष प्रकार के जलीय पौधों का आच्छादन रहता है, जो साइबेरियन पक्षियों को विशेष रूप से आकर्षित करता है । इन स्थलों पर प्रति वर्ष  हजारों मील की दूरी तय कर बहुत बड़ी तादाद में साईबेरियन पक्षियों का झुंड पहुँचता है, जिसके कौतुक को देखने के लिए देशी-विदेशी पर्यटक खिंचे चले आते हैं । सरकार ने दरभंगा जिला के कुशेश्वरस्थान एवं बेगूसराय जिले के कांवर झील को 'पक्षी अभयारण्य' घोषित कर रखा है ।

      

                                 ✍️    ---- डॉ. लक्ष्मी कुमार कर्ण









   

  


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