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जानें मिथिला के मैदानी क्षेत्र की प्रकृति को (LET'S KNOW ABOUT THE NATURE OF PLAIN AREA OF MITHILA)

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        .........आइए , इस अंक में हम जानने का प्रयास करते हैं मिथिलांचल के मैदानों की भौगोलिक विशेषताओं को....       हम जानते हैं कि मिथिला का क्षेत्र कम ढाल वाला मैदानी भू-भाग है ।       भूवेत्ताओं ने अध्ययन सुविधा के लिए वर्त्तमान मिथिला के उत्तरी सीमा से गंगानदी तक और कोशी से पश्चिमी सीमा तक के प्रक्षेत्र को 'मिथिला के मैदान' अन्तर्गत रखा है ।    पूरब में कोशी के पार के मिथिला क्षेत्र को 'कोशी के मैदान' क्षेत्र में तथा दक्षिण में गंगा पार के क्षेत्र को 'अंग के मैदान'  के  अंतर्गत स्थिर किया है ।    उपर्युक्त भौगोलिक विभाजन के आधार पर मिथिलांचल अंतर्गत तीन प्रकार के भौगोलिक क्षेत्र अंतर्भुक्त हैं ----     1. मिथिला का मैदान     2. कोशी का मैदान     3. अंग का मैदान ........आइए, प्रथमतः मिथिला के मैदान की भौगोलिक विशेषता को देखते हैं......     1. मिथिला का मैदान  :         मिथिला का मैदान मंद ढाल वाला है । इसकी औसत ढलान 8 से. मी. प्रति किलोमीटर है । इसलिए यहाँ खड़ी चढ़ाई का  क्षेत्र   नहीं  मिलता ।         यहाँ की नदियाँ अवसाद का निक्षेप अधिक गहराई तक की है जिसस

कथा पुरुषार्थी महाराज गंगदेव की (STORY OF COURAGEOUS MAHARAJA GANGDEV)

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     ... ...........' अंचल मिथिला' सीरीज....  के 'कहानी मिथिला में राजसत्ता की' .....  शीर्षक अंतर्गत हमने देखा कि कर्णाट राजा नान्यदेव ने 1097 ई. में मिथिला में अपनी राजसत्ता कायम की । किन्तु, कुछ अवधि के उपरांत बंगाल के बल्लाल सेन ने आक्रमण कर उन्हें पराजित कर बंदी बना लिया.......         .......... राजा नान्यदेव जब बल्लाल सेन के बंदी थे तो उनके पुत्र गंगदेव ने परम पुरुषार्थ का परिचय देते हुए बल्लाल सेन के बंदीशाला पर आक्रमण कर नान्यदेव को मुक्त करा लिया और उन्हें पुनः मिथिला के राज सिंहासन पर बिठाया ।  इस प्रकार मिथिला में फिर से कर्णाट वंश की सत्ता कायम हो गयी ....।         नान्यदेव के स्वर्गारोहण के बाद  गंगदेव ने मिथिला की सत्ता सँभाली । इनका शासन काल शाके 1046 , सन 1124 ई.  से आरंभ होकर 1138 ई. तक 14 वर्षों का रहा ।         गंगदेव के शासनकाल में नेपाल के राजा और गौड़देश (मालदह) के राजा द्वारा कई आक्रमण कर मिथिला राज्य  को अस्थिर करने का प्रयास किया गया ।  किन्तु, गंगदेव ने अपनी वीरता से उन्हें सफल नहीं होने दिया और अपने चतुर महामंत्री श्रीधर दास की सहायता से मिथिल

कहानी मिथिला में राजसत्ता की ( STORY OF SEIGNIORY IN MITHILA)

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   ...........आइये जानने का प्रयास करें .......मिथिला में किसकी रही है राजसत्ता.......     .........प्रस्तुत 'अंचल मिथिला' सीरीज के 'मिथिला तेरे कितने नाम' शीर्षक आलेख में हमने जाना कि अति प्राचीन काल में मिथिला प्रक्षेत्र एक आरण्यक एवं दलदली भू-भाग था, जिसका विदेध माथव नामक आर्य ने अग्नि से संस्कार कर इसे आर्यों के बसने योग्य बनाया ।       इसी विदेध (विदेह) माथव के नाम पर मिथिला में प्रथम सत्ता के रूप में विदेहवंश की राजसत्ता कायम हुई । ये राजसत्ता लगभग 3000 ई.पू. से 600 ई.पू. तक चली । इस वंश के निमि, मिथि व सीरध्वज जनक (सीता के पिता) आदि अति प्रतापी राजा हुए ।     सीरध्वज जनक को 'भोग में योग' के प्रणेता के रूप में जाना जाता है । सम्पूर्ण भोग-विलास, ऐश्वर्य की उपस्थिति के बावजूद वे एक योगी की भाँति रहते थे । धन-वैभव व साम्राज्य के प्रति उनकी कोई विशेष आसक्ति नहीं थी । सीरध्वज जनक के बाद के उत्तराधिकारियों पर भी इस आध्यात्मिक चिंतन का व्यापक प्रभाव पड़ा । जिस कारण सामरिक दृष्टिकोण से सेना के संगठन पर विदेह राजाओं द्वारा अधिक ध्यान नहीं दिया गया । फलतः शनैः-शनैः व

मिथिला की भौगोलिक अवस्थिति (Geographical location of Mithila)

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     ............इस अंक में हम जानने का प्रयास करते हैं कि मिथिला विश्व मानचित्र में कहाँ अवस्थित है, तथा इसकी धरती का निर्माण भौगोलिक रूप से किस तरह हुआ...............     विश्व मानचित्र में वर्तमान मिथिला करीब-करीब 25डिग्री से 27डिग्री उत्तर अक्षांश तथा 84डिग्री से 87डिग्री पूर्व देशांतर मध्य अवस्थित है । पराम्परागत रूप से इसके उत्तर में हिमालय, दक्षिण में गंगा, पूरब में कोशी एवं पश्चिम में गण्डक मानी जाती रही है  ।      मिथिलांचल की धरती के निर्माण के संबंध में भूवेत्ताओं ने जो मत व्यक्त किया है वह इस प्रकार है -----    मिथिलांचल भारतीय प्रायद्वीप का उत्तर-पूर्वी  हिस्सा है, जो 'कैंब्रियन कल्प' से ही सागर तल से ऊँचा रहा है । यह एक असंबलन खंड है,  जहाँ 'तृतीय महाकल्प' के उपरांत जलोढ़ निक्षेप से मैदान क़ा निर्माण हुआ है ।      कैम्ब्रियन कल्प   :    60 करोड़ वर्ष पूर्व  (गोंडवाना काल    :    22 - 60 करोड़ वर्ष पूर्व)    तृतीय महाकल्प  :   4 करोड़ से 7 करोड़ वर्ष पूर्व           मिथिलांचल की धरती काफी नई है । भू-वैज्ञानिकों केे अनुसार, सम्पूर्ण भारत में इस भू-भाग का निर्माण स

आर्यावर्त्त में मिथिला की अवस्थिति (Location of MITHILA in ARYAVARTA)

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          .......... आज इस अंक में हम जानने का प्रयास करते हैं कि आर्यावर्त में प्राचीन मिथिला की अवस्थिति कहाँ रही है ........       महान आर्यावर्त्त में पवित्र मिथिला की अवस्थिति पारंपरिक रूप से इस प्रकार मानी जाती रही है ----          उत्तर में हिमालय          दक्षिण में गंगा          पूरब में कौशिकी          पश्चिम में गण्डकी    'वृहदविष्णुपुराण' (5वीं शताब्दी) के मिथिला माहात्म्य-खंड में इसकी परंपरागत सीमा विवरण है, जो उपर्युक्त तथ्य को पुष्ट करता है। इसमें अंकित संस्कृत पद का मैथिली अनुवाद कवीश्वर चन्दा झा ने इस प्रकार किया है -------   गंगा बहथि जनिक दक्षिण,  पूर्व कौशिकी धारा   पश्चिम बहथि गण्डकी, उत्तर हिमवत बल-विस्तारा ।  कमला त्रियुगा कृतिका धेमुड़ा वागमती कृतसारा  मध्य बहथि लक्ष्मणा प्रभृति से मिथिला विद्यागारा ।।              मिथिला की उपर्युक्त सीमा में समय-समय पर परिवर्तन से इन्कार नहीं किया जा सकता है। प्राचीन विदेह वंश जब तक प्रबल रहा,  उपर्युक्त सीमा लगभग-लगभग स्थिर रही। किंतु, इस वंश की शक्ति क्रमिक रूप से क्षीण होने के साथ ही इसकी सीमा में अंतर आता चला गया

मिथिला का तीरभुक्ति नाम (TIRBHUKTI NAME OF MITHILA)

        ...........पिछले अंक 'नाम मिथिला'  में हमने मिथिलाभूमि के 'विदेह' और 'मिथिला' नाम की अंतर्कथा को विस्तार से   जाना ।             ................आइए इस अंक में हम इसके 'तीरभुक्ति' (तिरहुत) नाम के इतिहास में झांकने का प्रयास करते  हैं ..........        मिथिलाभूमि का 'तीरभुक्ति' नाम 'विदेह' और 'मिथिला' दोनों से अधिक नवीन है । वाल्मीकीय रामायण आदि अति प्राचीन ग्रंथों  में तीरभुक्ति नाम का उल्लेख कहीं नहीं मिलता है ।      'तीरभुक्ति' दो शब्दों से मिलकर बना है---- 'तीर' और 'भुक्ति' । तीर का अर्थ 'तट' और 'भुक्ति' का अर्थ साम्राज्य के एक भाग के रूप में 'प्रदेश' होता है । .......अर्थात तट पर अवस्थित प्रदेश ।      'तीरभुक्ति' शब्द भाषा विज्ञान के 'मुखसुख' सिद्धान्त से इस प्रकार रूपांतरित हुआ-----         तीरभुक्ति ------तिरहुति ------तिरहुत पुराण और तांत्रिक ग्रंथों में तीरभुक्ति नाम मिलता है । 'भविष्य पुराण' के आधार पर 'मिथिला' और   ' तीरभुक्ति&#

नाम मिथिला (Name Mithila)

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. ..........पिछले अंक में हमने मिथिला के एक प्राचीन प्रसिद्ध नाम 'विदेह' के संबंध में जानकारी प्राप्त की । ..........आईये अब हम जानते हैं मिथिला के 'मिथिला' नामकरण की अंतर्कथा--------           विदेह माथव द्वारा मिथिला के प्राचीन भू-भाग पर आर्यों के बसाये जाने के बाद यहाँ इस राजवंश के अनेक राजाओं ने राज्य करते हुए अपने साम्राज्य का विस्तार किया । सूर्यवंशी निमि प्राचीन मिथिला के प्रतापी राजा थे । इनकी वंश -शृंखला इस प्रकार थी---- ----- सूर्य के पुत्र वैवस्वत मनु, उनके पुत्र इक्ष्वाकु, इक्ष्वाकु के पुत्र निमि  ।       'शत्पथ ब्राह्मण' ग्रंथ के अनुसार, राजा इक्ष्वाकु को पुरंजय और निमि नाम के दो पुत्र थे । पुरंजय अयोध्या और निमि मिथिला(विदेह)  राज्य को ग्रहण किये । इसी निमि के अति प्रतापी और लोकप्रिय पुत्र मिथि के नाम पर इस भू-भाग का नाम ' मिथिला ' पड़ा ।              ' विष्णुपुराण ' एवं ' श्रीमद्भागवत ' में इस प्रसंग विस्तार से वर्णन मिलता है । इसमें कथा प्रसंग इस प्रकार है.............       एक बार इक्ष्वाकु पुत्र निमि को यज्ञ करने की अति